Wednesday 20 July 2011

न तो मैं मुसलमान हूँ न ही हिन्दू मैं तो मात्रा इन्सान हूँ-संत शिरोमणि कबीर

कबीर के जन्म तथा मृत्यु को लेकर कई किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं, परन्तु शोधें के आधर पर जो तथ्य प्रमाणित होते हैं, वे यही सि( करते हैं कि कबीर का जन्म नीरू और नीमा मुसलमान दम्पत्ति के यहाँ सम्वत् 1455 यानी सन् 1398 में तथा मृत्यु सम्वत् 1551 अर्थात् सन् 1494 हुआ, जब सिकन्दर लोदी काशी आया। मृत्यु का प्रामाणिक कारण भी सिकन्दर लोदी के आदेश से काजी द्वारा हाथी के पैरां तले कुचला जाना ही है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिसने भी प्रचलित परम्पराओं के खिलापफ दृढ़ता से अपनी बात कही उसे या तो अपार कष्ट सहना पड़ा या मौत का अलिंगन करना पड़ा। ईसामसीह को क्यों सूली पर लटकाया गया, कारण उन्होंने कहा ‘पैसे वालों का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं हो सकता। सूई के छेद से ऊँट भले ही निकल जायें, ध्नवान व्यक्ति प्रभु के राज्य में नहीं पहुँच सकता। अपनी सारी दौलत गरीबों में बाँट कर, अकिंचन बनकर मेरे साथ आओ। ऐसी बातें सुनकर पैसे वाले लोग ईसा के विरोध्ी बन गये। पुरानी गलत परम्पराओं का भी ईसा ने विरोध् किया। सत्य के लिये वे किसी की परवाह नहीं करते थे। नतीजा यह हुआ कि दिन प्रतिदिन उनका विरो बढ़ने लगा और ईसा को इन विरोध्यिों ने मिलकर सूली पर लटका दिया। इसी प्रकार गैलिलियों ने भी जब क्रिसचियनिटी मत के खिलापफ कहा कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है तो उसे भी लेज में बन्द करके प्रताडि़त किया गया लेकिन गैििललियों ने अन्त तक कहा कि मेरा विज्ञान जो कह रहा है उसे मै। कह रहा हूँ। इसी प्रकार के अन्य अनेक कथानक हैं जब परम्परा के विरोध्ी को मौत या अनेक कष्ट सहने पड़े हैं। कबीर को भी जान गंवानी पड़ी। कबीर पर आरोप लगा कि यह जुलाहा रियाया को भड़काता पिफरता है। इस्लाम के खिलापफ, मुल्लाओं के खिलापफ, रोजे नमाज के खिलापफ कहता है, नमाज ढोंग है, मुसलमान गऊ कसी करते हैं इसलिये कातिल हैं अजान देते हैं क्योंकि इनका खुदा बहरा है। दिन को राजा रखते हैं रात को गाय का माँस खाते हैं। इस तरह पहले तो बंदगी करते हैं, पिफर खून करते हैं। कबीर पर यह आरोप लगाया गया कि यह हर तरह के कुप्रफ कहता पिफरता है। शरीयत के मुताबिक यह कापिफर है। कबीर ने जवाब में कहा कि मैंने न किसी को भड़काया है, न किसी की तौहीन की है। जो मुझे सच लगा वही कहा है। चाहे वह मुसलमानों के बारे में हो या हिन्दुओं के बारे में। मुझे तो लगता है कि ये दोनों ही सच्ची राह नहीं पा सके। कबीर की बातों पर शक होने लगा कि वह मुसलमान है भी कि नहीं। कबीर ने स्वयं जवाब दिया कि मेरे माँ बाप दोनों मुसलमान थे-जुलाहे। लेकिन मैं न मुसलमान हूँ और न हिन्दू, मैं तो सिपर्फ इन्सान हूँ, साध्ु हूँ इसलिये मैं ध्रम-करम के पाखण्डों को नहीं मानता। मुझे कोई लालच नहीं है इसलिये मैं ढोंग नहीं रचता। मैं किसी से नपफरत नहीं करता, न मैं नपफरत पैला रहा हूँ। मैं अगर कुछ पफैला रहा हूत्र तो सिपर्फ प्रेम। क्योंकि मैं प्रेम में विश्वास रखता हूँ। इसीलिये मैं हिंसा का विरोध् करता हूँ। हिंसा का विरोध्ी हूँ, तभी तो माँस खाने के खिलापफ हूँ।’
कबीर कहते हैं ‘मैं तो हर उस आदमी को बूरा कहता हूँ जो दूसरों को खाता है चाहे मुल्ला हो या पंडित, सबके सब भोले-भाले लोगों को रूढि़यों के जंजाल में जकड़कर चूस रहे हैं। दूसरों के माल पर मौज उड़ा रहे हैं। ठग हैं, चोर हैं, लुटेरे हैं और जो यह सारी की सारी लूट मचाई जा रही है मजहब के नाम पर, मजहब चाहे कोई भी हो, इससे कुछ पफर्क नहीं पड़ता, लूटने का ढंग बदल जाता है बस’।
कबीर की इसी स्पष्टवादिता ने उसे सजाये मौत दिलाई। छियान्वे वर्ष के कबीर को, हाथ बाँध् कर हाथी के पैरों तले कुचला गया। कबीर तनिक भी विचलित नहीं हुए। कबीर बोले, मुझे तो मरना ही था, आज नहीं मरता तो कल मरता। अपने सि(ान्तों के लिये जीने करने वाला ही ‘कबीर’ हो सकता है। कबीर वह है जो न किसी जाति में पैदा हुआ और न किसी ध्र्म में मरा, जो मात्रा कब्र में दपफन है और समाध् िमें समाध्स्थि।
लहरतारा ;वाराणसीद्ध सन्त कबीर का उद्भव स्थान है। मगहर एक ऐसा स्थान है जो तीर्थ के सम्पूर्ण अर्थ का बहिष्कार करता है। वह एक प्रतितीर्थ है। लगता है संत कबीर की वजह से मगहर को प्रतितीर्थ की ख्याति प्राप्त हुई। कबीर ने अपने वचनों में वेद और कितेब, कुरान और पुराण, तीर्थ और पूजा, जप और माला के सभी मूल्यों को निरस्त कर दिया। संत कबीर निर्गुण काव्यधरा के प्रवर्तक माने जाते हैं। कबीर की वाणियों में आध्यात्मिक एवम् सांस्कृतिक एकता का पक्ष प्रबल है। मुसलमानों को उन्होंने पफटकारते हुए कहा कि दिन में पाँच बार नमाज पढ़ते हैं और घर जाकर हिंसा करते हैं, बकरा काटते हैं, इससे खुदा नहीं मिलेगा। हिन्दूओं को भी सीख देते हैं। पत्थर पूजने से भगवान नहीं मिलेगा। देवत्व की प्रतिष्ठा तो मनुष्य की आत्मा में होती है। यदि ऐसा नहीं है तो मूर्ति पूजा व्यर्थ हैं। छापा तिलक लगाना व्यर्थ है। मनुष्य में प्रेम, आस्था, निष्ठा और एकत्व की भावना होनी चाहिये। कबीर मानवता को ही सर्वोपरि मानते थे। उनकी उपासना प(ति में किसी व्यक्तिगत विशेष का नाम नहीं है, विष्णु के अवतार राम नहीं है। उनका राम ब्रह्य का पर्याय है। वह ऐसा राम है जो सर्वव्यापी है, सर्वज्ञ है, अनन्त है, अखण्ड है, सब घट में व्याप्त है। कबीर को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि संस्कृति में बांटने के प्रबल विरोध्ी थे। उन्होने कहा कि यह सब खंडित संस्कृति है। खंडित संस्कृति के कारण ही एकता भी खण्डित हो जाती है। खंडित संस्कृति के कारण ही धर्मिक उन्माद आ जाता है। कबीर धर्मिक उन्माद के बड़े विरोध्ी थे। मनुष्य में जब तक मानवता का संस्कार नहीं होगा तब तक और सब संस्कार व्यर्थ हैं। कबीर सामाजिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक एकता के पक्षध्र थे।
सन्त कबीर श्रमजीवी साध्ुता की स्थापना करने वालों में से एक थे। घर छोड़कर जंगल जाने वाली या भिक्षा करने वाली परोपकारी साध्ुता का खण्डन कर रहे थे। उनका मानना था कि कर्म की उपासना से ध्र्म की साध्ना सम्भव है। श्रमिक वर्ग की कमाई पर जीने वाले ब्राह्यण और भिक्षा के बल पर ध्र्माचार्य की प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले योगियों और साध्ुओं को उन्होंने अपने व्यंग से आहत किया था। अपने इस नये ध्र्म और नये विचार की स्थापना के लिए मुख्य रूप से वे ध्र्माध्किार से वंचित उपेक्षितों, दलितों, अन्त्यजों लेकिन श्रम में आस्था रखने वाले सच्चे मनुष्यों के बीच घूम रहे थे।
कबीर का मानना था कि घर में बीवी बच्चों के साथ रहना ही सही रास्ता है जीवन जीने का तथा जगत के क्रम को चलाते रहने का, वे तो बस इतना ही कहते थे कि बीवी बच्चों को ही सब कुछ मान लेना भूल हैं, भ्रम है, गलत है, मोह है क्योंकि यह मोह बन्ध्न दूःखदायी है। इसी मोह-माया से बिछुड़ने पर दुःख नहीं होता। सृष्टि का नियम ही कुछ ऐसा है कि जो आया है वह जाएगा ही। इस ज्ञान को पा लेने वाला दुःखी नहीं होता। दुःख का कारण भी ज्ञान का न होना ही है। कबीर इसे ही अज्ञान कहते है।
कबीर एक दिन गंगा घाट पर घूम रहे थे। घाट पर कुछ युवतियाँ स्नान कर रही थे और किनारे बैठा एक मन्दिर का पुजारी पालथी मारे माला पफेर रहा था। लेकिन पुजारी की निगाहें स्नान कर रही युवतियों पर पिफसली जा रही थीं तभी कबीर ने मुस्कुराकर पुजारी से कहाः-
माला पफेरत युग गया पिफरा न मन का पफेर
कर का मनका डारिके मन का मनका पफेर
कबिरा माला मनही की और संसारी भेष
माला पफेरे हरि मिले गले रहंट के देख
माला तो कर में पिफरे जीभ पिफरे मुँह माँहि
मनवा तो चहुँ दिसि पिफरे तो सुमिरन नाहिं
आगे बढ़ने पर कबीर ने देखा कि एक घाट पर पिण्डदान कराया जा रहा था। एक पण्डा कुछ ग्रामीणों के सिर मुंडवा रहा था। कबीर ने कटाक्ष किया-
मूंड मुड़ाये हरि मिले सब कोई ले ओ मुंडाय
बार-बार के मंडते भेंड़ न बैकुण्ठ जाय
कबीर ने जीवन की हर पुकार को तत्काल सुना, तत्काल निर्णय लिया और तत्काल कर डाला। टालते रहने की आदत के विराध्ी थे, क्योंकि वे इस रहस्य को समझ चुके थे कि एक बार टाल दिया गया काम पिफर नहीं हो पाता, क्योंकि जिन्दगी बहुत छोटी है और मनुष्य को करने होते है बुशुमार काम। इसलिये कबीर कहते थे-
काल्ह करे तो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होयगी बहुरि करेगा कब
दिन भर मेहनत से कपड़ा बुनकर ईमानदारी से जो कुछ वे कमा पाते थे, उसी कमाई में उन्होंने स्वयं जीवन भर अपना तथा अपने परिवार का पेट भरा। यहीं कारण था कि उन्हें सदा मानसिक शांति रही। कबीर कहते थे कि जो लोभ, लाभ, छीना झपटी, छल कपट, चमत्कार प्रदर्शन से बचा, वहीं साध्ु है लेकिन साध्ु कहलाना हर किसी के बूते की बात नहीं क्योंकि इस मार्ग में बड़े जोखिम है-
साध्ु कहावन कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर
चढ़े तो चाखे प्रेम रस, गिरे तो चकनाचूर
वृक्ष कबहुं नहीं पफल चखे, नहीं न संचे नीर
परमारथ के कारने साध्ु ने ध्रा शरीर
परमार्थ करने के लिए स्वार्थ को त्यागना पड़ता है और स्वार्थ को छोड़ने के लिये कम को मारना पड़ता है। बिना मन को मारे जो साध्ु का बाना पहन लेते हैं उन्हीं को लताड़ते हुये कबीर कहते थे-
साध्ु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार
बाहर भेस बनाईया, भीरत भरी भंगार
मालाा तिलक लगाई के भक्ति न आई हाथ
दाढ़ी मूँछ मुंडाई के हुया घोटम घोट
मूर्तिपूजा तथा कर्मकाण्ड को कबीर पागलपन तथा मनुष्य के बीच पफूट डालने का करण मानते थे। इसी पागलपन को दूरा करना ही उनकी दृष्टि में सत्य का उद्घाटन करना था।
कबीर को मृत्यु का भय नहीं था क्योंकि वे इस रहस्य को समझ चुके थे कि मृत्यु अनिवार्य है और परम तत्व की प्राप्ति का साध्न है। इसी ज्ञान ने उन्हें निर्भय बना दिया था। यही कारण था कि वे सत्य की खातिर किसी से उलझ पड़ते थे। वे मुसलमानों से उलझे, पंडितों और जोगियों से पूछा और अन्त में सुलतान सिकंदर लोदी से उलझ गये। लेकिन डरे नहीं, उन्हें हाथी के पावों तले कुचलवा दिया गया परन्तु उनकी अभिव्यक्ति, उनकी आत्मा की निर्भीकता तथा उनके व्यक्तित्व की आभा नहीं कुचली जा सकी।
सन्त भक्त कवियों में सबसे अलग और विशिष्ट स्थान था कबीर का। कबीर जैसा तीखा और विद्रोही स्वर किसी का न रहा। भारतीय जन मानस पर कबीर की अमिट छाप है इसका कारण इन्होंने ध्र्म और जाति के आउम्बरों ओर अन्ध् विश्वासों पर तीखा प्रहार किया। कबीर मानव मात्रा की एकता पर बल देते रहे।

जिंदगी का कायाकल्प करने वाली चंद आदतें

ऐसी आदतों के बारे में, जो कामयाब लोगों में पाई जाती हैं और नाकाम लोग जिनसे दूर रहते हैं। किस तरह कुछ आदतों को अपनाने से कामयाबी का रास्ता खुद-ब-खुद साफ होता जाता है, इसी बात को मैंने बेहद साफ और सरल तरीके से बताया है। वैसे, ज्यादातर लोगों का मानना है कि आदतों को छोड़ना या नई आदतें बनाना आसान नहीं है लेकिन अगर मन में ठान लें तो यह इतना मुश्किल भी नहीं है। मैंने सात आदतों की चर्चा की है, जिनके जरिए हम खुद को फिजिकल, सोशल, मेंटल और स्प्रिचुअल तरीके से बेहतर कर पाएंगे। ये आदतें हैं।
1. प्रो-ऐक्टिविटी यानी आगे बढ़कर फैसले लेना। यह आदत सबसे जरूरी है क्योंकि हमारे फैसले ही मुख्य रूप से हमारी जिंदगी की दिशा तय करते हैं। अपने फैसलों के साथ-साथ उनके नतीजों की जिम्मेदारी भी लें।
2. अंत को ध्यान में रखकर शुरुआत करें। कोई भी काम दो स्तर पर होता है, पहले मानसिक और फिर प्रैक्टिकली। यानी पहले मन में सोचें कि क्या करना है और फिर उसे करने के लिए कदम उठाएं। अपनी जिंदगी के मकसद, भूमिकाओं, कर्मों और रिश्तों पर ध्यान दें और इनके भविष्य के बारे में भी सोचें। इसे विजुअलाइजेशन भी कहा जाता है। एथलीट इसके सहारे ही आगे की रणनीति तय करते हैं।
3. प्राथमिकता तय करें। किसी भी काम को तकाजे के अनुसार न करके, उसकी जरूरत के मुताबिक करें। योजना बनाएं और उसके अनुसार अपने कामों की प्राथमिकता तय करें। जो काम जरूरी हो हो, उसे पहले करें क्योंकि सभी काम एक साथ नहीं हो सकते। इसी तरह अंतिम समय के लिए इंतजार करना भी बेकार है।
4. अपनी जीत की बजाय सबकी जीत पर फोकस करें। खुद अपनी उपलब्धि या जीत की बजाय खुद से जुड़े लोगों और टीम की जीत के मद्देनजर काम करें। आमतौर पर लोग समझते हैं कि अगर दूसरों को ज्यादा मिलेगा तो उन्हें कम मिलेगा। जिंदगी के बारे में यह सच नहीं है इसलिए आपसी फायदे के समाधान तलाशें। सबका फायदा होगा तो आपका भी फायदा होगा।
5. खुद को समझे जाने से पहले दूसरों को समझें। दूसरों को सुनने की आदत डालें। इससे आप उन्हें बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। ऐसा करने पर दूसरे भी आपको खुले दिमाग से समझने की कोशिश करेंगे। इस तरह आपसी समझ, प्रेम और इज्जत का माहौल कायम होगा, जो समस्या का सही समाधान मुहैया कराएगा।
6. पॉजिटिव टीमवर्क पर जोर दें। इसके जरिए लोगों की ताकत को एकजुट करें। इससे वे काम मुमकिन हो पाएंगे, जो कोई अकेला इंसान नहीं कर सकता। मददगार नेतृत्व और प्रेरणा के जरिए आप लोगों से बेहतर काम ले सकते हैं। यहां एक तरह से एक और एक ग्यारह का फॉर्म्युला समझाया गया है।
7. धार को पैना करें। अपने संसाधनों, ताकत और सेहत को तराशते रहें। इसके लॉन्ग टर्म फायदे होंगे
मैंने मोटे तौर पर आत्मनिर्भरता के साथ-साथ दूसरों पर निर्भरता की भी बात की है। इसमें दी गईं पहली तीन आदतें हमें आत्मनिर्भर बनाती हैं, उसके बाद की तीन आदतें दूसरों पर निर्भर और आखिरी आदत हमें पूरा करती है।
(दुर्गेश कुमार श्रीवास्तव)

Tuesday 19 July 2011

गुरु का संदेश

छत्रपति शिवाजी ने अपने पराक्रम से अनेक लड़ाइयां जीतीं। इससे उनके मन में थोड़ा अभिमान आ गया। उन्हें लगता था कि उनके जैसा वीर धरती पर और कोई नहीं है। कई बार उनका यह अभिमान औरों के सामने भी झलक पड़ता। एक दिन शिवाजी के महल में उनके गुरु समर्थ रामदास पधारे। शिवाजी वैसे तो रामदास का काफी आदर करते थे लेकिन उनके सामने भी उनका अभिमान व्यक्त हो ही गया, श्गुरुजी अब मैं लाखों लोगों का रक्षक और पालक हूं। मुझे उनके सुख-दुख और भोजन-वस्त्र आदि की काफी चिंता करनी पड़ती है।
रामदास समझ गए कि उनके शिष्य के मन में राजा होने का अभिमान हो गया है। इस अभिमान को तोड़ने के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची। शाम को शिवाजी के साथ भ्रमण करते हुए रामदास ने अचानक उन्हें एक बड़ा पत्थर दिखाते हुए कहा, श्शिवा, जरा इस पत्थर को तोड़कर तो देखो।श् शिवाजी ने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए तत्काल वह पत्थर तोड़ डाला। किंतु यह क्या, पत्थर के बीच से एक जीवित मेंढक एक पतंगे को मुंह में दबाए बैठा था।
इसे देखकर शिवाजी चकित रह गए। समर्थ रामदास ने पूछा, श्पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन की जिम्मेदारी भी तुम्हारे कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?श् शिवाजी गुरु की बात का मर्म समझकर लज्जित हो गए। गुरु ने उन्हें समझाया, श्पालक तो सबका एक ही है और वह परम पिता परमेश्वर। हम-तुम तो माध्यम भर हैं। इसलिए उस पर विश्वास रखकर कार्य करो। तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी।