Thursday 7 February 2013

भारत की श्रेष्ठतम देन है - एकात्म विज्ञान दृष्टि


भारत की श्रेष्ठतम देन है - एकात्म विज्ञान दृष्टि


लेखक - सुरेश सोनी
महर्षि कपिल ने कहा कि सृष्टि पूर्व की जो अवस्था है उसमें जब प्रकृति अव्यक्तावस्था में रहती है, तब सभी गुण साम्यावस्था में रहते हैं। यह साम्यावस्था टूटती है मूल तत्व के संकल्प से, जिसका वर्णन उपनिषदों ने किया- एकोऽहं बहुस्याम - यह संकल्प ही इच्छाशक्ति है। इससे गुणों की साम्यावस्था भंग होती है तथा उस अव्यक्त प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा इसी के साथ सृष्टि व्यक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उसका प्रथम विकास महत्‌ अथवा विराट्‌ बुद्धि शक्ति के रूप में होता है, यही ज्ञान शक्ति है। एक मूलभूत ज्ञान शक्ति सूक्ष्म परमाणु से लेकर संपूर्ण व्रह्माण्ड तक का नियमन कर रही है, इसकी पुष्टि निम्न तथ्यों से प्रतीत होती है-

(१) विराट्‌ रचनाओं में आकाश गंगा की रचना सर्पिल भुजाओं (च्द्रत्द्धठ्ठथ्‌ द्मन्र्थ्र्थ्र्ड्ढद्यद्धन्र् दृढ ठ्ठ ढ़ठ्ठथ्ठ्ठन्न्र्‌) जैसी है। दूसरी ओर सूक्ष्मतम गुणवाहक (क्रड्ढदड्ढ) का भी सर्पिल द्विभुज मॉडल (क़्दृद्वडथ्ड्ढ ण्ड्ढथ्त्न्‌ द्मन्र्द्मद्यड्ढथ्र्‌) है।

(२) ‘क्ष्दढत्दत्द्यड्ढ त्द ठ्ठथ्थ्‌ क़्त्द्धड्ढड़द्यत्दृद‘ नामक अपनी पुस्तक में फ्र्ीमैन डायसन कहते हैं, ‘एक अद्भुत साम्य आकार की दृष्टि दुनिया में दिखाई देती है। इसे चार संदर्भों में देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा। (१)सम्पूर्ण दृश्य विश्व (२) हमारी पृथ्वी (३) परमाणु का केन्द्रक या दद्वड़थ्ड्ढद्वद्म (४) अधिसूत्र या च्द्वद्रड्ढद्ध च्द्यद्धत्दढ़। इसमें हमारी पृथ्वी ज्ञात विश्व से १०२० गुना छोटी है। परमाणु केन्द्रक का आकार पृथ्वी के अनुपात में १०२० गुना छोटा है तथा अधिसूत्र परमाणु केन्द्रक से १०२० गुना छोटा है।‘

सांख्य कहता है, महत्‌ से अहंकार उत्पन्न होता है, जिसके तीन रूप हैं- वैकारी अहंकार तेजस्‌ अहंकार और भूताहि अहंकार। इनसे पंचतन्मात्रा तथा उनसे विभिन्न इन्द्रियां तथा जगत्‌ के विभिन्न पदार्थ बनते हैं। सृष्टिचक्र गतिमान होता है तथा प्रलय काल में पुन: इसी क्रम से उसका लोप हो जाता है। यह विभिन्न शक्तियां, उनसे सृष्टि का चक्र गतिमान होना, फिर लोप होना, यह क्या है, तो वेदान्त कहता है- ‘कम्पनात्‌‘ अर्थात्‌ निर्माण या विध्वंस। सबमें कंपन है, स्पंदन है। भगवान बुद्ध कहते हैं सम्पूर्ण जगत प्रकम्पन है- ‘सब्बोप्रज्जालितो लोको, सब्बो लोको प्रकम्पितो‘। जगत में ठोस जैसा कुछ नहीं है, केवल प्रकम्पन ही है। आदि शंकराचार्य कहते हैं- परमाणु से लेकर व्रह्मलोक तक तथा सामान्य शक्ति से लेकर प्राणशक्ति तक सब स्पन्दन है। स्वामी विवेकानंद भी कहते थे, ‘संपूर्ण जगत कम्पन है, स्पन्दन है। इतना ही है कि मन तीव्र कम्पन है तथा स्थूल या जिसे जड़ कहा जाता है, वह मंद कम्पन है।‘ व्रह्माण्ड का सृजन और लोप कम्पन का ही परिणाम है। कम्पन समुद्र की लहरों के समान है। जैसे समुद्र की सतह के ऊपर हलचल रहती है पर नीचे का आधार शांत रहता है, उसी प्रकार जगत्‌ का मूलाधार व्रह्म है, कम्पन तो ऊपरी सतह पर है।

इस प्रकार व्रह्माण्ड के विवेचन में उन्होंने जाना कि जगत्‌ एवं उस जगत्‌ के द्रष्टा के तीन स्तर हैं। पहला स्थूल जगत है, जिसकी अनुभूति हम जागृत अवस्था में करते हैं। दूसरा सूक्ष्म जगत है, जिसका अनुभव हम स्वप्नावस्था में करते हैं। दोनों जगत्‌ की रचना भिन्न है, जागृत जगत्‌ भौतिक परमाणुओं का समुच्चय है तो स्वप्न जगत भावमय परमाणुओं का। दोनों में काल का मापन भिन्न है, या कह सकते हैं कि सापेक्ष है। एक और तीसरा जगत है जिसे कारण जगत्‌ कहा गया, जिसकी अनुभूति प्रगाढ़ निद्रा में होती है।

इस प्रकार व्रह्माण्ड के विविध रूप, विविध शक्तियां तथा इनका द्रष्टा, इन सबका समन्वय निम्न रूप में किया-

तीन जगत्‌- (१) स्थूल (२) सूक्ष्म (३) कारण
तीन अवस्थाएं- (१) जागृत (२) स्वप्न (३) सुषुप्ति


तीन शक्तियां- (१) क्रिया (२) ज्ञान (३) इच्छा। ये सभी जिस मूल आधार से उद्भूत हैं, उसे ही व्रह्म कहा गया। इसकी अनुभूति चतुर्थ अवस्था-तुरीय अवस्था में होती है।
विराट समुद्र की गहराई में निश्चल जल रहता है, पर उसके ऊपर छोटी-बड़ी लहरें उठती हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण व्रह्माण्ड व्रह्म समुद्र में लहरों के समान उठते और विलीन होते रहते हैं। इसी को व्रह्म कहा गया, अन्तिम सत्य कहा गया तथा जिसके वर्णन की चेष्टा भिन्न-भिन्न रूपों में भारतीय वांगमय में प्राप्त होती है।

(१) ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह‘
(तै.उ. १२-४-१)
अर्थात्‌-जहां से वाणी मन सहित लौटकर आ जाती है।

(२) यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति
येन यत्‌ प्रयन्त्यभिसंविशंन्ति तद्विजिज्ञासस्व च तद्व्रह्मेति। (तै.उ.३-१-१)

अर्थात्‌- जिससे सभी भूत उत्पन्न होते हैं, जिसमें रहते हैं तथा जिसमें विलीन हो जाते हैं, उसे जानो। वही व्रह्म है।

(३) स यथा उर्णनाभि: तन्तुना उच्यरेत्‌ यथा अग्ने:
क्षुद्रा: विस्फुलिंगा: व्युच्चरन्ति एवम्‌ एव अस्मात्‌
आत्मन: सर्वे प्राणा: सर्वे लोका: सर्वे देवाऽ सर्वांणि
भूतानि व्युच्चरन्ति तस्य उपनिषद्‌ सत्यस्य सत्यं
इति प्राणा: वै सत्यं तेषां एष: सत्यम्‌।

(बृहदारण्यक उपनिषद्‌ २-१-२०)

अर्थात्‌- जिस प्रकार मकड़ी के अंदर से जाल निकलता है, जिस प्रकार अग्नि में से छोटे-छोटे स्फुल्लिंग निकलते हैं, उसी प्रकार इस आत्मा से सभी प्रकार की शक्तियां, सभी प्रकार के लोक, सभी प्रकार के देव तथा सम्पूर्ण स्थूल जगत उत्पन्न होते हैं। उसको जानो, उसके निकट जाओ, वह सत्य का भी सत्य है। मूलभूत ऊर्जा सत्य है, परन्तु वह इसका भी सत्य है।

इस प्रकार भारतीय प्रज्ञा के मत में चेतना के अनंत समुद्र की क्षणिक अभिव्यक्ति ही यह व्रह्मांड है। अनेक पश्चिमी वैज्ञानिकों ने भी इस विषय में सोचा है। २५ जनवरी, १९३१ के ऑब्जर्वर में जे.डब्ल्यू. एन-सुलिवान द्वारा मैक्सप्लांक से लिया गया साक्षात्कार छपा है। इसमें सुलिवान प्रश्न पूछता है कि क्या चेतना की व्याख्या पदार्थ और उसके नियमों के तहत की जा सकती है? उत्तर में मैक्सप्लांक ने कहा ‘मैं ऐसा नहीं सोचता। मेरी दृष्टि में चेतना मौलिक है और पदार्थ उसका परिणाम है। पदार्थ चेतना का विस्तार है।‘

स्वामी विवेकानंद ने इसे अलग तरह से अभिव्यक्त किया। वे कहते हैं ‘ऐसा लगता है कि चेतना का प्रवाह अभ्यंतर से उत्सर्जित होकर भौतिक दुनिया की ओर सतत प्रवाहित हो रहा है।‘

सम्पूर्ण जगत्‌ में निर्जीव व सजीव ऐसा कोई निरपेक्ष विभाजन नहीं हो सकता, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में एकत्व है। इसे जगदीश चन्द्र बसु ने १० मई, १९०१ को रॉयल इन्स्टीट्यूट में प्रयोगों के द्वारा विश्व के वैज्ञानिकों के समक्ष सिद्ध किया। टीन के टुकड़े पर कॉस्टिक पोटाश की विष उत्पन्नकारी खुराक देने पर उसकी विद्युत धड़कन बंद हुई, जैसे सजीव कोशिका में होती है। साथ ही विष हरणवाली सुई लगाने पर धातु में पुन: सामान्य प्रतिक्रिया आने लगी। इस प्रभाव के अनेक प्रदर्शन के बाद सजीव और निर्जीव की थकावट के इतिहास के स्वत: प्राप्त रिकार्डों के प्रमाण प्रस्तुत कर बोस ने अपना भाषण निम्नलिखित शब्दों में समाप्त किया-

‘इस प्रकार के प्राकृतिक तथ्यों में क्या हम भौतिकीय प्रक्रिया और शरीर पर होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया के बीच कोई सीमा रेखा खींच सकते है? ऐसी कोई भी सीमा रेखा नहीं होती।‘

‘जब मैंने अपने आप बने रिकार्डों के मूक साक्ष्य को देखा और कण, जो प्रकाश की लहरों में कंपित होता है, हमारी पृथ्वी का जीवन और प्रकाशवान सूर्य, जो हमारे ऊपर चमक रहा है, उन सभी वस्तुओं में व्याप्त एकता का अवलोकन किया, तभी मैं पहली बार उस संदेश को कुछ-कुछ समझ सका जिसकी घोषणा मेरे पूर्वजों ने गंगा के सुरम्य तटों पर तीन हजार वर्ष पहले की थी, कि इस विश्व के सभी परिवर्तनशील स्वरूपों में एक ही सत्य है, केवल एक-और कुछ नहीं।‘

अन्तिम सत्य जानने का साधन- एक बार अनिश्चितता सिद्धान्त के जनक हीजेनबर्ग ने परमाणु के ग्रहीय मॉडल का प्रतिपादन करने वाले महान विज्ञानी नील्स बोर से पूछा, यदि परमाणु की आन्तरिक बनावट इस प्रकार वर्णनातीत है जैसा आप कह रहे हैं तथा इसे अभिव्यक्त करने के लिए हमारे पास कोई भाषा नहीं है, तो इसे कभी समझ पाने की आशा हम कैसे करें? इस पर कुछ देर चुप रहकर कुछ झिझक के साथ नील्स बोर बोले ‘इस सबके बाद भी हम समझ सकते हैं, पर हमें समझने का अर्थ सीखना पड़ेगा।‘ बोर के इस कथन में गहराई है। यह समझना कैसे होगा। इस सन्दर्भ में आइंस्टीन का एक वाक्य स्मरण आता है।

किसी ने आइंस्टीन से पूछा कि जगत्‌ की अंतिम वास्तिवकता (रियालिटी) को कैसे जानें, तो आइंस्टीन ने कहा, हम जिन उपकरणों (इन्द्रीय तथा बुद्धि आदि) के द्वारा जगत्‌ को जानने का प्रयत्न करते हैं, वह इस जगत्‌ का ही हिस्सा है। वह भी देश (च्द्रठ्ठड़ड्ढ), काल (च्र्त्थ्र्ड्ढ) तथा निमित्त (ड़ठ्ठद्वद्मड्ढद्म द्धड्ढथ्ठ्ठद्यत्दृद) की परिधि में हैं तथा सत्य इस परिधि के परे है। अत: उन्होंने कहा-

‘ख्द्वथ्र्द्र ठ्ठडदृध्ड्ढ न्र्दृद्वद्ध दृध्र्द थ्र्त्दड्ड‘ अर्थात्‌ अपने मन के परे छलांग लगाओ। पर यह छलांग कैसे लगानी है, यह पश्चिम को ज्ञात नहीं। हमारे यहां की योग साधना तथा अन्यान्य साधना पद्धतियों में देश, काल और निमित्त की परिधि के परे कालातीत अवस्था में पहुंचने की विधि का भी प्रतिपादन किया गया है।

श्वेताश्वर उपनिषद्‌ में वर्णन आता है कि जगत क्या है? उसका कारण क्या है? इसके विश्लेषण में किसी ने काल को कारण माना, किसी ने स्वभाव को, किसी ने आकस्मिक संयोग को, किसी ने प्रकृति को, किसी ने भूत समुच्चय को, किसी ने पुरुष को तो किसी ने इस सबके योग को। पर अंतिम सत्य न मिला, तब क्या किया जाए। इसके उत्तर में उपनिषद्‌ कहता है।

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्‌
देवात्मशक्तिं स्वगुणै र्निग्ढ़ाम्‌।
य: कारणानि निखिलानि तानि
कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येक।
 (श्वेताश्वर उपनिषद्‌ १-३)

अर्थात्‌ तब उन्होंने ध्यान योग का आश्रय ले, आन्तरिक गहराइयों में उतरकर उस परम शक्ति का साक्षात्कार किया, जो काल सहित इस सम्पूर्ण जगत्‌ का कारण है। और जब यह साक्षात्कार होता है तब हम अनुभव करते हैं कि सब कुछ ज्ञात-अज्ञात उस एक की ही अभिव्यक्ति है तथा सम्पूर्ण जगत्‌, उसकी शक्तियां, पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, वृक्ष, मानव सब उसी एक तत्व के विभिन्न रूप हैं। इस अनुभूति में से एक एकात्मदृष्टि उत्पन्न होती है। यह एकात्म विज्ञान दृष्टि भारत की श्रेष्ठतम देन है, जो जीव और निर्जीव के भेद को समाप्त कर देती है तथा जगत्‌ और उसके सबसे बड़े रहस्य मानव की सभी समस्याओं का समाधान करती है। इस एकात्म विज्ञान दृष्टि की देन दुनिया को भारत ही दे सकता है

वैदिक गणित के सोलह सूत्र एवं उपसूत्र


वैदिक गणित के सोलह सूत्र एवं उपसूत्र

जगद्गुरु भारती कृष्ण तीर्थ जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक गणित के 16 सूत्र एवं 13 उपसूत्र

16 सूत्र
1. एकाधिकेन पूर्वेण - पहले से एक अधिक के द्वारा
2. निखिलं नवतश्चरमं दशत: - सभी नौ में से तथा अन्तिम दस में से
3. उध्र्वतिर्यक् भ्याम् - सीधे और तिरछे दोनों विधियों से
4. परावत्र्य योजयेत् - विपरीत उपयोग करें।
5. शून्यं साम्यसमुच्चये - समुच्चय समान होने पर शून्य होता है।
6. आनुररूप्ये शून्यमन्यत् - अनुरूपता होने पर दूसरा शून्य होता है।
7. संकलनव्यवकलनाभ्याम् - जोड़कर और घटाकर
8. पूरणापूराणाभ्याम् - पूरा करने और विपरीत क्रिया द्वारा
9. चलनकलनाभ्याम् - चलन-कलन की क्रियाओं द्वारा
10. यावदूनम् - जितना कम है।
11. व्यष्टिसमिष्ट: - एक को पूर्ण और पूर्ण को एक मानते हुए।
12. शेषाण्यङ्केन चरमेण - - अंतिम अंक के सभी शेषों को।
13. सोपान्त्यद्वयमन्त्यम् - अंतिम और उपान्तिम का दुगुना।
14. एकन्यूनेन पूर्वेण - पहले से एक कम के द्वारा।
15. गुणितसमुच्चय: - गुणितों का समुच्चय।
16. गुणकसमुच्चय: - गुणकों का समुच्चय।

उपसूत्र 
1. आनुरूप्येण - अनुरूपता के द्वारा।
2. शिष्यते शेषसंज्ञ: - बचे हुए को शेष कहते हैं।
3. आद्यमाद्येनान्त्यमन्त्येन - - पहले को पहले से, अंतिम को अंतिम से।
4. केवलै: सप्तकं गुम्यात् - "क", "व", "ल" से 7 गुणा करें।
5. वेष्टनम् - भाजकता परीक्षण की एक विशिष्ट क्रिया का नाम।
6. यावदूनं तावदूनम् - जितना कम उतना और कम।
7. यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्ग च योजयेत्
8. अन्त्ययोर्दशकेऽपि
9. अन्त्ययोरेव
10. समुच्चयगुणित:
11. लोपनस्थापनाभ्याम्
12. विलोकनम्
13. गुणितसमुच्चय: समुच्चयगुणित:

भारत ने ही सोचा - मनुष्य जन्म ही क्यों?

लेखक - सुरेश सोनी
आइंस्टीन ने अपने विशिष्ट सापेक्षता सिद्धांत में पदार्थ व ऊर्जा का एकीकरण किया। उन्होंने कहा कि ऊर्जा की स्थूल अभिव्यक्ति पदार्थ है तथा अपने प्रसिद्ध समीकरण कउथ्र्ड़२ द्वारा सिद्ध किया कि दोनों एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं। न्यूटन ने कहा था कि स्पेश (अन्तराल) चारों ओर एक रस है और काल सरल रैखिक है। पर आइंस्टीन ने कहा, व्रह्माण्ड मात्र यंत्र नहीं है। उसकी गतिविधियां यांत्रिक नहीं है अपितु व्रह्माण्ड लचीला है व विभिन्न बनावट वाला है। जहां भी पदार्थ व गति है वहां दिक्‌ (स्पेस) वक्र हो जाता है जैसे समुद्र में तैरती मछली अपने आस-पास के पानी को काटती है उसी प्रकार एक तारा या पुच्छल तारा या ज्योतिर्माला उस दिक्‌ काल की बनावट में से, जिसमें से वह गुजरता है, परिवर्तन ला देता है। दिक्‌ और काल अलग-अलग नहीं हैं, क्योंकि एक बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। घटनाओं के बिना काल का अस्तित्व नहीं और काल के बिना घटनाओं की जानकारी नहीं। इस प्रकार आइंस्टीन ने पदार्थ, ऊर्जा, दिक्‌, काल इनका एकीकरण किया। इस प्रकार पश्चिम की सम्पूर्ण विज्ञान यात्रा को हम संक्षेप में इस प्रकार रख सकते हैं-

समस्त स्थूल जगत तत्वों से, तत्व परमाणुओं से तथा परमाणु सूक्ष्म कणों से बने हैं। परन्तु ये कण हैं भी या नहीं, यह जानना कठिन है। अत: ये सब प्रवाह हैं और प्रवाह बल या ऊर्जा रूप है। यह ऊर्जा चार प्रकार की है, इसमें तीन का एकीकरण समझ में आता है। इनका व्यवहार दिक्‌ (स्पेस) में है और दिक्‌ (स्पेस) तथा काल (टाइम) अलग नहीं है। अत: सम्पूर्ण जगत्‌ दिक्‌-काल के चतु: आयामी क्षेत्र से उद्भूत है। इस एकीकरण में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का एकीकरण संभव नहीं हुआ है। जिस दिन यह हो जाएगा, उस दिन शायद भौतिकी का अंत हो जाएगा। पश्चिम के सैद्धान्तिक क्षेत्र की विज्ञान यात्रा यहां तक हुई है।

प्रश्न उठता है, कल यदि गुरुत्वाकर्षण शक्ति का भी एकीकरण हो गया तो क्या इस विश्व की पहेली सुलझ जाएगी? क्या विश्व का अंतिम सत्य जान लिया जाएगा? लगता है नहीं। क्योंकि तब कुछ मूलभूत अन्य प्रश्न उठेंगे। मानव का मन क्या है? बुद्धि क्या है? भावना क्या है? जिसे फ्र्ी विल या स्वतंत्र इच्छा कहते हैं, वह क्या है? इसका और स्थूल सृष्टि व उसमें होने वाली घटना का सम्बंध क्या है? सर्वोपरि, जिसे चेतना कहा जाता है, क्या है? क्योंकि अभी तक विज्ञान ने मन, चेतना, बुद्धि आदि को अपनी परिधि में नहीं लिया है और विज्ञान, भौतिक विज्ञान तथा जैव विज्ञान ऐसे अलग खेमों में बंटा हुआ है। एक नई प्रकार की जाति व्यवस्था मानो खड़ी हुई है और आज की त्रासदी के पीछे यह खंडित दृष्टि बहुत बड़ा कारण है।

भारत की विज्ञान यात्रा
हमारे यहां प्राचीन काल से व्रह्मांड क्या है और कैसे उत्पन्न हुआ, क्यों उत्पन्न हुआ इत्यादि प्रश्नों का विचार हुआ। पर जितना इनका विचार हुआ उससे अधिक ये प्रश्न जिसमें उठते हैं, उस मनुष्य का भी विचार हुआ। ज्ञान प्राप्ति का प्रथम माध्यम इन्द्रियां हैं। इनके द्वारा मनुष्य देखकर, चखकर, सूंघकर, स्पर्श कर तथा सुनकर ज्ञान प्राप्त करता है। बाह्य जगत के ये माध्यम हैं। विभिन्न उपकरण इन इंद्रियों को जानने की शक्ति बढ़ाते हैं।

दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण माध्यम अन्तर्ज्ञान माना गया, जिसमें शरीर को प्रयोगशाला बना समस्त विचार, भावना, इच्छा इनमें स्पन्दन शांत होने पर सत्य अपने को उद्घाटित करता है। अत: ज्ञान प्राप्ति के ये दोनों माध्यम रहे तथा मूल सत्य के निकट अन्तर्ज्ञान की अनुभूति से उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न हुआ। यद्यपि वेदों, व्राह्मणों, उपनिषदों, महाभारत, भागवत आदि में ऊपर उठाए प्रश्नों का विवेचन मिलता है, परन्तु व्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने आज से हजारों वर्ष पूर्व अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था।

कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के विज्ञान से भी आगे जाता है। महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। दूसरी बात वे कहते हैं कि द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्‌। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत्‌ यानी विशाल व्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है। अत: कणाद कहते हैं-

‘धर्म विशेष प्रसुदात द्रव्य
गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां
पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां
तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम वै.द.-४


अर्थात्‌ धर्म विशेष में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय के साधर्य और वैधर्म्य के ज्ञान द्वारा उत्पन्न ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।

द्रव्य क्या है? इसकी महर्षि कणाद की व्याख्या बहुत व्यापक एवं आश्चर्यजनक है। वे कहते हैं-

पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालोदिगात्मा मन इति द्रव्याणि
वै.द. १/५

अर्थात्‌ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा जीवात्मा तथा मन- ये द्रव्य हैं। यहां पृथ्वी, जल आदि से कोई हमारी पृथ्वी, जल आदि का अर्थ लेते हैं। पर ध्यान रखें इस सम्पूर्ण व्रह्माण्ड में ये नौ द्रव्य कहे गए, अत: स्थूल पृथ्वी से यहां अर्थ नहीं है।

वे कहते हैं, पृथ्वी यानी द्रव्य का ठोस (च्दृथ्त्ड्ड) रूप, जल यानी द्रव्य (ख्त्द्र्दद्वत्ड्ड) रूप तथा वायु (क्रठ्ठद्म) रूप, यह तो सामान्यत: दुनिया में पहले से ज्ञात था, पर महर्षि कणाद कहते हैं कि तेज भी द्रव्य है। जबकि पदार्थ व ऊर्जा एक है यह ज्ञान २०वीं सदी में आया है। इसके अतिरिक्त वे कहते हैं- आकाश भी द्रव्य है तथा आकाश परमाणु रहित है और सारी गति आकाश के सहारे ही होती है, क्योंकि परमाणु के भ्रमण में हरेक के बीच अवकाश या प्रभाव क्षेत्र रहता है। अत: हमारे यहां घटाकाश, महाकाश, हृदयाकाश आदि शब्दों का प्रयोग होता है। महर्षि कणाद कहते हैं- दिक्‌ (च्द्रठ्ठड़ड्ढ) तथा काल (च्र्त्थ्र्ड्ढ) यह भी द्रव्य है, जबकि पश्चिम से इसकी अवधारणा आइंस्टीन के सापेक्षतावाद के प्रतिपादन के बाद आई।

महर्षि कणाद के मत में मन तथा आत्मा भी द्रव्य हैं। इस अवधारणा को मानने की मानसिकता आज के विज्ञान में भी नहीं है।

प्रत्येक द्रव्य की स्थित आणविक है। वे गतिशील हैं तथा परिमण्डलाकार उनकी स्थिति है। अत: उनका सूत्र है-

‘नित्यं परिमण्डलम्‌‘ वै.द. ७/२०
परमाणु छोटे-बड़े रहते हैं, इस विषय में महर्षि कणाद कहते हैं-
एतेन दीर्घत्वहृस्वत्वे व्याख्याते (वै.द.) ७-१-१७
आकर्षण-विकर्षण से अणुओं में छोटापन और बड़ापन उत्पन्न होता है। इसी प्रकार व्रह्मसूत्र में कहा गया-
महद्‌ दीर्घवद्वा हृस्वपरिमण्डलाभ्याम्‌ (व्र.सूत्र २-२-११)
अर्थात्‌ महद्‌ से हृस्व तथा दीर्घ परिमण्डल बनते हैं।
परमाणु प्रभावित कैसे होते हैं तो महर्षि कणाद कहते हैं-
विभवान्महानाकाशस्तथा च आत्मा (वै.द. ७-२२)
अर्थात्‌ उच्च ऊर्जा, आकाश व आत्मा के प्रभाव से।

परमाणुओं से सृष्टि की प्रक्रिया कैसे होती है, तो महर्षि कणाद कहते हैं कि पाकज क्रिया के द्वारा। इसे पीलुपाक क्रिया भी कहते हैं। अर्थात्‌ अग्नि या ताप के द्वारा परमाणुओं का संयोजन होता है। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक बनते हैं। तीन द्वयणुक से एक त्रयणुक, चार त्रयणुक से एक चतुर्णुक तथा इस प्रकार स्थूल पदार्थों की निर्मित होती है। वे कुछ समय रहते हैं तथा बाद में पुन: उनका क्षरण होता है और मूल रूप में लौटते हैं।

महर्षि कणाद ने परमाणु को ही अंतिम तत्व माना। कहते हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनकी अंतिम अवस्था में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम लें, तो कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव: पीलव: पीलव: अर्थात्‌ परमाणु, परमाणु, परमाणु।

महर्षि कपिल थोड़ा और गहराई में गए तथा कपिल का सांख्य दर्शन जगत्‌ की अत्यंत वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करता है। महर्षि कपिल ने कहा- जिसकी भी कुछ आन्तरिक रचना है उनके भिन्न-भिन्न रूप हैं। अत: निश्चयात्मक रूप से यह जगत्‌ मूल रूप से जिनसे बना है, उसके आकार के बारे में नहीं कह सकते। इतना कह सकते हैं कि वे सूक्ष्म हैं तथा उनका एक विशेष प्रकार का गुण है। अत: उन्होंने कहा- जगत्‌ त्रिगुणात्मक है और ये तीन गुण हैं सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण। महर्षि कपिल की व्याख्या आश्चर्यजनक है, वे कहते हैं कि ये तीनों गुण हैं।

(१) लध्वादिधर्म: साधर्म्यं वैधर्यं च गुणानाम्‌ (सांख्य दर्शन-१-१२८)अर्थात्‌ सूक्ष्मता की दृष्टि से इनमें समानता है परन्तु विशेषता या गुण की दृष्टि से इनमें भिन्नता है। गुण क्या हैं? वे कहते हैं-

प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधर्म्यम्‌
(सां.द.१-१२७)

प्रीति (ॠद्यद्यद्धठ्ठड़द्यत्दृद), अप्रीति (ङड्ढद्रद्वथ्द्मत्दृद) तथा विषाद (ग़्ड्ढद्वद्यद्धठ्ठथ्‌)- ये भिन्न-भिन्न विशेषता इन गुणों की है।

इसमें भी जो गति होती है वह आकर्षण व विकर्षण के कारण ही होती है। अत: सांख्य दर्शन कहता है-

‘रागविरागयोर्योग: सृष्टि:‘ (सां.द. २-९)
आकर्षण और विकर्षण का योग सृष्टि है। सम्पूर्ण सृष्टि आकर्षण और विकर्षण का ही खेल है और यह सब जिस शक्ति द्वारा होता है उसे क्रिया शक्ति कहा जाता है और समस्त भौतिक शक्तियों का इसमें एकीकरण है।

परन्तु यह सब जानने की जिसमें इच्छा है तथा जिसमें प्रश्न उठते हैं वह मानव, उसका मन, उसके संशय ये सब क्या हैं और अंतिम एकीकरण कहां जाकर होगा, इसका युक्तियुक्त विश्लेषण तथा अनुभव सांख्य के साथ वेदान्त ने किया।